78 साल बाद भी अधूरी है आज़ादी:- भारत को स्वतंत्रता प्राप्त किए 78 वर्ष होने वाले है 15 अगस्त 1947 को देश ने ब्रिटिश शासन से आज़ादी प्राप्त की थी, और तब से हर वर्ष यह दिन पूरे गौरव और सम्मान के साथ मनाया जाता है। इस बार (2025 में) भारत अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, लेकिन आज, जब भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर डिजिटल अर्थव्यवस्था तक कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है, एक बड़ा सवाल फिर भी उठता है – क्या हम वाकई पूरी तरह से आज़ाद हैं

यह सवाल केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और मानसिक स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। आइए समझते हैं कि यह “अधूरी आज़ादी” किस संदर्भ में कही जा रही है।

राजनीतिक आज़ादी मिली, लेकिन क्या यह सब कुछ था?

भारत ने ब्रिटिश शासन की बेड़ियों को तोड़ते हुए अपने संविधान, संसद, न्यायपालिका और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्थापना की। यह राजनीतिक स्वतंत्रता थी, जिसकी भारत को सख्त आवश्यकता थी। लेकिन यह केवल पहली सीढ़ी थी। आज़ादी का अर्थ केवल सत्ता हस्तांतरण नहीं, बल्कि नागरिकों के जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाना भी है।

सामाजिक असमानता अब भी एक सच्चाई

आज भी जाति, धर्म, लिंग और वर्ग के आधार पर भेदभाव और हिंसा की घटनाएं सामने आती हैं। संविधान में समानता की गारंटी के बावजूद, सामाजिक ढांचे में गहराई से जड़े भेदभाव समाप्त नहीं हुए हैं। दलित समुदाय, आदिवासी समूह, और कई बार महिलाएं – अब भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।

शहरों और गांवों के बीच सामाजिक स्तर पर भी गहरी खाई है, जो आज़ादी के समान वितरण को बाधित करती है।

आर्थिक स्वतंत्रता – कुछ के लिए अवसर, बाकियों के लिए संघर्ष

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आर्थिक मोर्चे पर, भारत ने ज़रूर तेज़ विकास दर्ज किया है। लेकिन यह विकास समान रूप से नहीं फैला है। करोड़ों लोग अब भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। महंगाई, बेरोज़गारी और संसाधनों तक असमान पहुंच ने आर्थिक स्वतंत्रता को केवल कुछ वर्गों तक सीमित कर दिया है।

कृषि क्षेत्र में काम कर रहे लाखों किसानों की स्थिति, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की दशा, और छोटे व्यापारियों के सामने खड़े आर्थिक संकट इस अधूरी आज़ादी की वास्तविकता को दर्शाते हैं।

शिक्षा और स्वास्थ्य में विषमता

स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि हर नागरिक को समान अवसर प्राप्त हों – चाहे वह शिक्षा हो या स्वास्थ्य सेवा। हालांकि सरकारी योजनाएं और प्रयास मौजूद हैं, परंतु जमीनी हकीकत यह है कि निजी संस्थानों और सरकारी सेवाओं के बीच भारी अंतर है। ग्रामीण क्षेत्रों और गरीब वर्गों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा आज भी एक चुनौती बनी हुई है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सीमाएं

संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आधारशिला है। परंतु हाल के वर्षों में कई मामलों में यह स्वतंत्रता सवालों के घेरे में रही है। पत्रकारों पर हमले, सामाजिक मीडिया पर निगरानी, और असहमति जताने वाले लोगों पर कार्रवाई जैसे घटनाक्रम चिंता का विषय बनते जा रहे हैं।

जब नागरिक खुलकर अपनी राय न रख सकें, तो वह मानसिक रूप से कितना आज़ाद है, यह विचार करने योग्य प्रश्न है।

महिलाओं की सुरक्षा और समानता

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महिलाओं को आज़ादी तो मिली, लेकिन क्या वे सुरक्षित महसूस करती हैं? कार्यस्थलों, सड़कों और घरों में उनके साथ होने वाली हिंसा, छेड़छाड़ और भेदभाव इस बात का संकेत है कि आज़ादी अभी भी अधूरी है। महिला सशक्तिकरण की बातें ज़रूर हो रही हैं, लेकिन उनका वास्तविक प्रभाव हर क्षेत्र में अभी तक स्पष्ट नहीं है।

निष्कर्ष

भारत ने 78 वर्षों में बहुत कुछ हासिल किया है। परंतु यह भी सत्य है कि आज़ादी केवल एक बार मिलने वाली वस्तु नहीं है – यह एक सतत प्रक्रिया है। जब तक हर नागरिक को न्याय, समानता, सम्मान और अवसर नहीं मिलते, तब तक यह आज़ादी अधूरी ही कहलाएगी।

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स्वतंत्रता दिवस पर हमें आत्ममंथन करना चाहिए – कि हमने क्या पाया, और अब क्या पाना शेष है। देश के निर्माण में भागीदारी सिर्फ सरकार की नहीं, हर नागरिक की है। पूर्ण आज़ादी की दिशा में आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि हम समस्याओं को स्वीकार करें, सुधार करें और एक बेहतर, समावेशी भारत का निर्माण करें।