इतिहास में पहली बार हुआ कुछ ऐसा:- भारतीय संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। यहाँ से देश की नीतियाँ तय होती हैं, कानून बनाए जाते हैं और जनता की समस्याओं के समाधान खोजे जाते हैं। हर बार जनता उम्मीद के साथ देखती है कि संसद में उनके मुद्दों पर चर्चा होगी और ठोस फैसले लिए जाएंगे। लेकिन इस बार का मानसून सत्र इतिहास में शायद सबसे निराशाजनक रहा। पूरे सत्र में कामकाज की जगह सिर्फ़ शोर-शराबा और हंगामे ने जगह ली।

हंगामे ने रोका कामकाज
पूरा सत्र विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच टकराव की भेंट चढ़ गया। जहाँ जनता चाहती थी कि महंगाई, बेरोज़गारी, विकास और जन-हित से जुड़े मुद्दों पर बहस हो, वहाँ नारेबाज़ी, वॉकआउट और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहा। नतीजा ये हुआ कि न कोई गंभीर बहस हो पाई और न ही कोई बड़ा बिल पास हो सका।
हर मिनट जो संसद में व्यर्थ जाता है, वह देश पर आर्थिक बोझ डालता है। लेकिन जब पूरा सत्र ही हंगामे में निकल जाए तो इसका सीधा नुकसान आम जनता को उठाना पड़ता है।
सबसे ज़्यादा हंगामा किस मुद्दे पर हुआ?
इस सत्र में सबसे अधिक हंगामा बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर हुआ। विपक्ष ने इसे चुनावी धोखाधड़ी की कोशिश बताया और सदन में तीखा विरोध किया।
इसी तरह, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री यदि गंभीर आरोपों में 30 दिन तक जेल में रहें तो उन्हें पद से हटाने वाले विधेयक (tainted-ministers bill) पर भी ज़बरदस्त टकराव देखने को मिला। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा इसे पेश किए जाने पर विपक्ष ने आक्रामक रुख अपनाया और लगातार शोर-शराबा किया।
सबसे कम हंगामा कहाँ रहा?
कुछ विधेयक अपेक्षाकृत शांत माहौल में पेश और पारित किए गए। इनमें शामिल हैं:
- National Sports Governance Bill, 2025 – खेल संस्थाओं में सुशासन सुनिश्चित करने के लिए
- National-Anti-Doping (Amendment) Bill, 2025 – खेलों में पारदर्शिता और निष्पक्षता लाने के लिए
इन पर हंगामा तो नहीं हुआ, लेकिन गंभीर बहस और गहरी चर्चा की भी कमी रही।
किस मुद्दे पर सचमुच बहस होनी चाहिए थी, लेकिन नहीं हुई?
इस सत्र में कई अहम विधेयक लाए गए जिनका सीधा संबंध जनता से था। इनमें Income-Tax Bill, Indian Ports Bill, Coastal Shipping Bill जैसे प्रस्ताव शामिल थे। इन पर बहस और पारदर्शिता की सख्त ज़रूरत थी, लेकिन लगातार हंगामे और टकराव की वजह से इनकी गहरी समीक्षा नहीं हो पाई।
यानी जो मुद्दे लोगों के जीवन को बेहतर बना सकते थे, वे चर्चा के बिना ही अधर में लटक गए।
मोदी संसद में आए, पर कुछ कहकर नहीं गए…”
सत्र की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रक्षा, अंतरिक्ष और आर्थिक उपलब्धियों पर जोर दिया। उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर, अंतरिक्ष स्टेशन पर भारत का झंडा और महंगाई में कमी जैसी उपलब्धियाँ गिनाईं।
लेकिन सत्र के आगे बढ़ने के साथ प्रधानमंत्री की ओर से किसी बड़े तर्क-वितर्क या विपक्ष को सीधा जवाब देने वाली बहस नहीं देखी गई। विपक्ष का आरोप रहा कि सरकार जनता के असली मुद्दों से बच रही है और संसद की परंपरा के अनुरूप बहस करने से पीछे हट रही है।
लोकतंत्र पर सवाल
लोकतंत्र बहस और संवाद पर टिका है। अगर संसद में ही संवाद की जगह सिर्फ़ टकराव रह जाए तो ये लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। इस बार का सत्र इस बात का सबूत बन गया कि राजनीति में सहयोग से ज़्यादा टकराव को अहमियत दी जा रही है।
अब आगे क्या?
जनता को उम्मीद है कि संसद अपने मूल उद्देश्य की ओर लौटेगी। विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों को यह समझना होगा कि उनका असली कर्तव्य जनता की आवाज़ को उठाना है, न कि केवल चुनावी अंक गिनती करना।
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समाधान यही है कि:
- विपक्ष और सत्ता पक्ष व्यावहारिक बहस करें, सिर्फ़ शोर नहीं।
- सांसद जनहित के मुद्दों—जैसे महंगाई, रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा—पर प्राथमिकता से चर्चा करें।
- संसद का समय बर्बाद करने की बजाय ठोस निर्णय लिए जाएँ।
निष्कर्ष
इतिहास में पहली बार संसद का पूरा सत्र लगभग पूरी तरह से हंगामे की भेंट चढ़ गया। जनता की जो उम्मीदें थीं, वे अधूरी रह गईं। लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब संसद शोर नहीं, बल्कि रचनात्मक संवाद और ठोस फैसलों से चले।