इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धि:- स्वतंत्रता के बाद भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी देश की एकता को सुनिश्चित करना। अंग्रेज़ों के शासनकाल में भारत सिर्फ एक राजनीतिक इकाई नहीं था, बल्कि उसमें 562 से अधिक देसी रियासतें भी थीं जो स्वतंत्र रूप से शासित होती थीं। जब अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा, तो उन्होंने इन रियासतों को विकल्प दिया कि वे भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकती हैं या चाहें तो स्वतंत्र राष्ट्र बन सकती हैं। यह स्थिति नव स्वतंत्र भारत के लिए बेहद चिंताजनक थी।

देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के सामने एक ऐसी चुनौती थी, जो अगर असफल होती, तो भारत का भूगोल हमेशा के लिए टुकड़ों में बंटा रह जाता। परंतु पटेल ने अपनी दूरदृष्टि, दृढ़ निश्चय और राजनीतिक समझ का परिचय देते हुए इन 562 रियासतों को शांतिपूर्वक, और कुछ मामलों में मजबूती से, भारत संघ में मिला लिया।

स्वतंत्रता के समय भारत की राजनीतिक स्थिति

15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ, लेकिन यह आज़ादी अपने साथ एक गंभीर समस्या भी लेकर आई। ब्रिटिश भारत के दो हिस्से थे –

  1. सीधे ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में आने वाले प्रांत
  2. वे 562 देसी रियासतें जो ब्रिटिश सरकार के साथ ‘subsidiary alliance’ के अंतर्गत थीं।

ये रियासतें भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 40% और जनसंख्या का 23% भाग थीं।

जब ब्रिटेन ने भारत को स्वतंत्रता देने की घोषणा की, तो उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब इन रियासतों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रहेगा। इसका अर्थ यह था कि हर रियासत स्वतंत्र रूप से अपने भविष्य का निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र थी।

सरदार पटेल की नियुक्ति और जिम्मेदारी

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल को नवगठित भारत का प्रथम गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्हें देशी रियासतों के एकीकरण के लिए गठित ‘राज्यों विभाग’ की जिम्मेदारी भी सौंपी गई। इस जटिल कार्य में उन्हें प्रशासनिक मार्गदर्शन और रणनीतिक सहयोग प्रदान किया वरिष्ठ अधिकारी वी.पी. मेनन ने, जो अपने अनुभव और संतुलित दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्ध थे।

पटेल ने यह स्पष्ट किया कि स्वतंत्र भारत में कोई भी “संप्रभु द्वीप” नहीं हो सकता। एक संयुक्त राष्ट्र के निर्माण के लिए यह आवश्यक था कि सभी रियासतें भारत संघ का हिस्सा बनें।

राजनीतिक कूटनीति और रणनीति

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सरदार पटेल ने सबसे पहले रियासतों के शासकों को यह समझाने का प्रयास किया कि स्वतंत्रता के बाद उनकी स्थिति कितनी अस्थिर होगी। उन्होंने यह तर्क दिया कि एक स्वतंत्र रियासत, बिना किसी सैन्य शक्ति और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता के, टिक नहीं पाएगी।

इसके अलावा, भारत में सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से जुड़ी रियासतें अगर अलग-अलग राष्ट्र बनतीं, तो यह न केवल अव्यवस्था को जन्म देतीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा बन जातीं।

पटेल ने अधिकतर रियासतों को शांतिपूर्ण तरीकों से मना लिया। उनके सामने सबसे कठिन कार्य था उन रियासतों को भारत में शामिल करना जो अपने विशेषाधिकारों और स्वायत्तता को छोड़ने को तैयार नहीं थीं।

विवादास्पद और कठिन रियासतें

कुछ प्रमुख रियासतों ने भारत में शामिल होने से इनकार किया या विलंब किया। ये थीं:

1. हैदराबाद

दक्षिण भारत की सबसे प्रभावशाली रियासतों में शामिल हैदराबाद के निज़ाम ने 1947 में स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने का विकल्प चुना। इस निर्णय के चलते क्षेत्र में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गई।

निज़ाम समर्थित रज़ाकारों द्वारा हिंसा और उत्पीड़न की घटनाएं सामने आने लगीं, जिनका शिकार विशेष रूप से हिन्दू बहुल क्षेत्र बने। हालात नियंत्रण से बाहर होते देख भारत सरकार ने 13 से 18 सितंबर 1948 के बीच ‘ऑपरेशन पोलो’ के तहत सैन्य हस्तक्षेप किया, जिसके बाद हैदराबाद भारत संघ में सम्मिलित हो गया।

2. जूनागढ़

गुजरात की मुस्लिम शासक वाली रियासत जूनागढ़ ने पाकिस्तान से जुड़ने की घोषणा की, जबकि वहां की बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी। स्थानीय लोगों के विरोध और जनमत संग्रह के बाद जूनागढ़ भारत में विलीन हो गया।

3. कश्मीर

जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह स्वतंत्र रहना चाहते थे। लेकिन जब पाकिस्तान समर्थित कबायलियों ने अक्टूबर 1947 में आक्रमण किया, तो महाराजा ने भारत से सहायता मांगी। इसके बदले में उन्होंने ‘Instrument of Accession’ पर हस्ताक्षर किए और कश्मीर भारत में शामिल हो गया।

Instrument of Accession’ क्या था?

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सरदार पटेल और वी.पी. मेनन ने एक कानूनी दस्तावेज़ तैयार किया जिसे ‘Instrument of Accession’ कहा गया। यह एक प्रकार का समझौता था, जिसमें रियासत के शासक यह स्वीकार करते थे कि वे भारत संघ में शामिल हो रहे हैं और रक्षा, विदेश नीति और संचार जैसे विषयों पर अधिकार भारत सरकार को सौंपते हैं।

यह व्यवस्था रियासतों को एक गरिमापूर्ण प्रक्रिया के तहत भारतीय संघ में सम्मिलित होने का विकल्प प्रदान करती थी, जिसमें प्रारंभिक चरण में उन्हें आंतरिक प्रशासन संबंधी कुछ स्वायत्त अधिकार भी सुरक्षित रखे गए थे।

पटेल की रणनीति: संवाद और दबाव का संतुलन

पटेल ने जहां एक ओर संवाद और तर्क के माध्यम से रियासतों को भारत में शामिल किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि यदि कोई रियासत भारत की एकता को बाधित करेगी, तो सरकार कठोर कदम उठाने में संकोच नहीं करेगी। यह दोहरा दृष्टिकोण ही उनकी सफलता की कुंजी बना।

उन्होंने देश की अखंडता को सर्वोपरि रखा और व्यक्तिगत सत्ता, विशेषाधिकारों या झूठे गौरव के सामने कभी झुके नहीं।

ऐतिहासिक उपलब्धि और प्रभाव

1947 से 1950 के बीच सरदार पटेल ने लगभग सभी रियासतों को भारत में सफलतापूर्वक विलीन कर लिया। यह कार्य केवल राजनीतिक या प्रशासनिक नहीं था, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक, भौगोलिक और राष्ट्रीय एकता के लिए अनिवार्य था।

यदि यह एकीकरण न होता, तो आज भारत छोटे-छोटे राष्ट्रों में बंटा होता, और उसकी संप्रभुता, सुरक्षा और विकास बाधित होता।

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निष्कर्ष

सरदार वल्लभभाई पटेल का यह योगदान भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। जिस प्रकार उन्होंने 562 अलग-अलग रियासतों को एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में विलीन किया, वह केवल एक प्रशासनिक उपलब्धि नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक चमत्कार था।

आज भारत की जो एकता और अखंडता दिखाई देती है, उसकी नींव सरदार पटेल ने ही रखी थी। उन्हें सही मायनों में “भारत का बिस्मार्क” और “लौह पुरुष” कहा जाता है। उनकी यही दूरदर्शिता आज भी भारत के संघीय ढांचे की रीढ़ मानी जाती है।