आपातकाल के 50 साल:- आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ पर आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 1975 की उस भयावह सुबह की यादें साझा कीं, जिसने भारतीय लोकतंत्र को गहरे तक झकझोर दिया था। उन्होंने इसे तानाशाही के काले अध्याय की संज्ञा देते हुए कहा कि वह दृश्य आज भी उनके मन में जीवित है जब उनके गांव से 184 लोग बिना किसी अपराध के जेल भेज दिए गए थे।

अमित शाह ने बताया कि आपातकाल के समय वे मात्र 11 वर्ष के थे, लेकिन उन दिनों की छवियां आज भी उनके स्मृति पटल पर स्पष्ट हैं। उन्होंने कहा, “गुजरात में उस समय जनता सरकार थी, इसलिए प्रभाव अपेक्षाकृत कम था, लेकिन बाद में वह सरकार गिरा दी गई। मैं एक छोटे से गांव से आता हूं, और वहां से 184 लोगों को जेल में डाल दिया गया था। उस दिन के डर और अन्याय को मैं मरते दम तक नहीं भूल सकता।”

सत्ता की सुरक्षा को बताया असली वजह

गृह मंत्री ने कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा यह कहकर की कि देश को खतरा है, लेकिन वास्तव में उस समय कोई राष्ट्रीय आपातस्थिति नहीं थी। “हमने बांग्लादेश युद्ध में विजय पाई थी, कोई बाहरी या आंतरिक खतरा नहीं था। केवल पद और सत्ता को बचाने के लिए लोकतंत्र को कुचला गया।

शाह ने आपातकाल को लोकतंत्र पर सीधा हमला बताते हुए कहा, यह पूरी तरह से एकतरफा निर्णय था। सुबह 4 बजे कैबिनेट बैठक बुलाई गई और वरिष्ठ मंत्रियों तक को एजेंडे की जानकारी नहीं दी गई। यह सिर्फ सूचना देने की औपचारिकता थी।

लोकतंत्र की जीत का जश्न

उन्होंने याद किया कि जब 1977 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आए और इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं, तो देशभर में कैसी उमंग और आज़ादी की हवा चली थी। “हम एक ट्रक में बैठकर अखबार की इमारत के बाहर चुनाव परिणाम का इंतजार कर रहे थे। रात के तीन-चार बजे जब हमें पता चला कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों हार गए हैं, तब हजारों लोगों के चेहरे पर जो खुशी थी, उसे मैं कभी नहीं भूल सकता।

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आपातकाल को बताया लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय

कार्यक्रम के दौरान शाह ने कहा कि आपातकाल को एक वाक्य में परिभाषित करना मुश्किल है, लेकिन वह इसे इस रूप में देखते हैं — “जब बहुदलीय लोकतंत्र को एक व्यक्ति की सत्ता की चाह में तानाशाही में बदल दिया जाए, तो वह आपातकाल कहलाता है।”

उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह भारत की जनता की जागरूकता और लोकतांत्रिक भावना का ही परिणाम था कि उस समय की तानाशाही मानसिकता को पराजित कर पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने।

निष्कर्ष:
इस अवसर पर शाह की बातें केवल राजनीतिक आलोचना नहीं थीं, बल्कि उन लाखों लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद भी थीं जिन्होंने आज़ादी के बाद फिर से लोकतंत्र को जीवित करने के लिए लड़ाई लड़ी। आपातकाल की यह 50वीं वर्षगांठ सिर्फ इतिहास को याद करने का दिन नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का संकल्प दोहराने का भी अवसर है।