EV रेस में पिछड़ सकता है भारत:- इलेक्ट्रिक व्हीकल्स की तरफ बढ़ती दुनिया की रफ्तार के बीच भारत की ऑटो इंडस्ट्री एक अहम मोड़ पर खड़ी है। वेक्टर कंसल्टिंग ग्रुप की एक ताजा रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि भारतीय वाहन निर्माता कंपनियों ने अपने कामकाज के ढांचे में तत्काल सुधार नहीं किया, तो भारत अगले दशक में वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ सकता है

तकनीक नहीं, कार्यान्वयन की गड़बड़ी है असली चुनौती

रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत की वाहन कंपनियों में तकनीकी क्षमता होने के बावजूद, EV प्रोजेक्ट्स में देरी मुख्य रूप से आंतरिक समन्वय की कमी और कार्यान्वयन में गड़बड़ियों के कारण हो रही है। कुछ प्रोजेक्ट्स तो 24 महीनों तक की देरी का सामना कर रहे हैं, और यह देरी किसी तकनीकी जटिलता के कारण नहीं, बल्कि संगठनात्मक ढांचे की कमियों के चलते हो रही है।

रिसर्च और डेवलपमेंट में भारी कमी

स्टडी के अनुसार, देश के लगभग 88 प्रतिशत ऑटो कंपोनेंट सप्लायर्स के पास पर्याप्त रिसर्च और डेवलपमेंट (R&D) क्षमता नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में केवल निर्माण क्षमता ही नहीं, नवाचार की कमी भी एक बड़ी रुकावट बन रही है।

एक ही टीम से चल रहे EV और ICE प्रोजेक्ट्स

रिपोर्ट में बताया गया है कि कई वाहन निर्माता कंपनियां इलेक्ट्रिक और आंतरिक दहन इंजन (ICE) प्रोजेक्ट्स को एक ही टीम के माध्यम से चला रही हैं। इससे इंजीनियरिंग, खरीदारी और टेस्टिंग विभागों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। यहां तक कि जिन टीमों को विशेष रूप से EV के लिए बनाया गया है, वे भी पुरानी प्रक्रियाओं को अपनाए हुए हैं, जिससे नवाचार की गति धीमी हो रही है।

सप्लायर्स के सामने भी चुनौतियां

ऑटो पार्ट्स बनाने वाली कंपनियों को अक्सर एक ही समय में कई जटिल प्रोजेक्ट्स पर काम करना पड़ता है, बिना स्पष्ट टाइमलाइन और फाइनल डिजाइन के। इससे बार-बार बदलाव करने पड़ते हैं, लागत बढ़ती है और इंजीनियरिंग टीमों में थकावट बढ़ती है।

वेक्टर कंसल्टिंग ग्रुप के मैनेजिंग पार्टनर रवींद्र पाटकी के अनुसार, यदि वाहन निर्माता समय पर डिलीवरी चाहते हैं, तो उन्हें सप्लायर्स को शुरुआत से ही डिज़ाइन और प्रोडक्ट प्लानिंग प्रक्रिया में शामिल करना होगा, केवल सोर्सिंग तक सीमित नहीं रखना चाहिए।

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EV स्टार्टअप्स की चुनौतियां भी उजागर

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि EV स्टार्टअप्स भले ही पुराने सिस्टम से मुक्त हैं, लेकिन वे भी अक्सर जल्दी लॉन्च करने की होड़ में अधूरी तैयारियों के साथ बाजार में आते हैं। बाद में वे सॉफ्टवेयर अपडेट (OTA) के जरिए समस्याएं हल करने की कोशिश करते हैं, जो ग्राहक के भरोसे को कमजोर कर सकता है और दीर्घकालिक रूप से अधिक खर्चीला साबित होता है।

समाधान: साझेदारी और सिस्टम में बदलाव जरूरी

रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत की ऑटो इंडस्ट्री को केवल लागत घटाने की रणनीति से आगे बढ़ते हुए, सहयोग आधारित मॉडल को अपनाना होगा। कंपनियों को अपने सप्लायर्स को डिजाइन के शुरुआती चरण से ही भागीदार बनाना चाहिए और जोखिम भी साझा करना चाहिए। इसके साथ ही डिजिटल टूल्स के माध्यम से वास्तविक समय पर प्रगति की निगरानी को भी बढ़ावा देना होगा।

रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि अगले दशक में वही कंपनियां टिक पाएंगी जो सिर्फ प्रोटोटाइप तक सीमित न रहकर, समय पर गुणवत्ता पूर्ण उत्पाद लॉन्च कर सकेंगी और बाजार की मांग के अनुसार तेजी से स्केल व सुधार करने में सक्षम होंगी।